आज विजयादशमी का पर्व सभी लोग बहुत ही धूमधाम से मना रहे हैं. सुबह से किसी ने आकर एक बार भी नहीं कहा कि भाई जी कहीं जाना तो नहीं है? स्कूटर धो दें?
कौन कहता? यही सोचते जब ख्याल आता और अब भी यही सवाल खुद से
कर रहे हैं. सही तो है, कौन कहता ये बात? कौन आकर कहता कि स्कूटर धो दें?
तुम्हारा दशहरे
पर आना पिछले दो-चार साल में कम ही हुआ है मगर दीपावली पर आना होता रहा. हर
त्यौहार पर (दीपावली, दशहरा पर) हमारा स्कूटर धोना जैसे
तुम्हारा ही काम बना हुआ था. हमने दो-चार बार तुमको टोका भी कि तुम अपने काम कर लो, हम धो लेंगे मगर यह काम तुमने अपने जिम्मे ही ले
रखा था.
पिछली बार
तुम्हारा सुबह से कई बार स्कूटर धोने की बात करना और फिर किसी न किसी काम में
हमारे या तुम्हारे लग जाने के कारण यह काम टलता रहा. इस बात का बाद में हम सबने
खूब मजाक बनाया. इस बार न कोई पूछने वाला था, न कोई मजाक बनाने जैसी स्थिति थी.
इस बार आसपास
बस ख़ामोशी थी. व्याकुलता थी. हँसते चेहरे-आँखों के पीछे आँसू थे. बस एक तुम न थे. आज
सबकुछ शांत-शांत बना रहा. आज स्कूटर ऐसे ही खड़ा रहा, बिना धुले. दिल-दिमाग जानते थे तुम्हारा न आना मगर खुद को धोखा देते यही
सुनना चाहते थे कि भाई जी कहीं जाना तो नहीं है? स्कूटर धो दें?
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